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CMP: ‘ हिंदी पखवाड़ा’ कार्यक्रम के अंतर्गत ‘ ज्ञान के विविध क्षेत्र और हिंदी’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन

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सीएमपी डिग्री कॉलेज हिंदी विभाग प्रयागराज द्वारा ‘ हिंदी पखवाड़ा’ कार्यक्रम के अंतर्गत ‘ ज्ञान के विविध क्षेत्र और हिंदी’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन हुआ । इस कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रोफेसर संतोष भदौरिया जी थे।
अपने वक्तव्य में डॉ संतोष जी ने कहा कि ज्ञान व्यक्ति को विनम्र बनता है लेकिन ज्ञान पर किसका कब्जा है, ज्ञान के रूप क्या है ,उसको भी देखा जाना चाहिए । उन्होंने कहा कि ज्ञान का राजसत्ता,धर्म सत्ता और पितृसत्ता से गहरा संबंध रहा है । राजसत्ता ज्ञान को वैधानिक बनती है और धर्म सत्ता ज्ञान का अपने हित में उपयोग करती है । रविदास के बेगमपुरा की अवधारणा जैसे ही हमारे सामने आती है तो धर्मसत्ता इस ज्ञान को खास वर्ग से जोड़ती है ।हम ज्ञान आधारित समाज में तब्दील तो होते जा रहे हैं लेकिन मुख्य रूप से हम आज एक मानव संसाधन के रूप में विकसित हो रहे हैं ।
नारीवादी आंदोलन के 100 वर्ष होने के बाद भी पितृसत्ता आज भी अस्तित्व में है ।
सिमोन द बोउवा का यह कहना ‘ स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है’ यह बात आज भी सच है । तुलसीराम जैसे लेखक ने तमाम धार्मिक साहित्य का विस्तृत और गंभीर अध्ययन किया था । ज्ञान का सृजन पोथियों के रूप में हुआ है उसकी अलग-अलग विशेषताएं हैं । तमाम स्त्रियों द्वारा जो स्त्री व्रत कथाएं पढ़ी-लिखी सुनी जाती हैं उसमें मुख्य रूप से भय का प्रभाव दिखाया जाता है । उस भय के आधार पर ही धर्म को सहेजने का काम किया जाता है ।
भारत में अंग्रेजों के आने से आधुनिकता का उदय होता है । शुक्ल जी ने जैन , नाथ साहित्य को धार्मिक कहा और उन्हें साहित्य के क्षेत्र से खारिज कर दिया लेकिन तुलसी के साहित्य को स्वीकर लिया है ।इसकी वजहों को देखा जाना चाहिए । गोरखनाथ का साहित्य निम्न जाति के व्यक्तियों ,मुस्लिम समुदाय या पसमांदा समाज का साहित्य था जिसमें मनुष्य सबसे ऊपर था ।
मनुष्यता का मूल्य इनके साहित्य में मुख्य था । आधुनिकता पहनावे से नहीं विवेक और ज्ञान के आधार पर देखी जानी चाहिए । 90 के बाद हम व्यक्ति के रूप में स्मार्ट हो रहे हैं लेकिन आज स्थिति यह है कि भाषा के स्तर पर हम स्मार्ट शब्द का स्थानापन्न तक नहीं खोज पा रहे हैं । आज ज्ञान को सुरक्षित करने का काम मुख्य रूप से पश्चिम में हो रहा है ।
अपने वक्तव्य में डॉ. संतोष भदोरिया ने 1932 के हस्तलिखित अखबार जो कि बहुत ही मुश्किलों से खोजा गया था जिसकी प्रति नेशनल आर्काइव में मिली थी उसके हवाले से बहुत सी बातें कहीं ।
बुंदेलखंड केसरी का जिक्र करते हुए बताते हैं कि ज्ञान के सृजन के जो बहुत से तरीके रहे हैं उसमें से एक तरीका सबाल्टर्न इतिहास के द्वारा देखा जा रहा है । सबाल्टर्न इतिहास आज नायकत्व की अवधारणाओं को तोड़ रहा है। उन्होंने बुंदेलखंड केसरी अखबार के संपादक रामदयाल और सुखदयाल को याद किया जो कि इतिहास के पन्ने से गायब हैं
लोक ज्ञान और ज्ञान का अनुभवजन्य पक्ष के साथ लोक के ज्ञान को तरजीह देते हैं । स्वानुभूति और सहानुभूति का मसला भी साहित्य में है । साहित्य ने हमेशा से सत्ता का प्रतिपक्ष रचा है हम प्रतिपक्ष रखने वाले साहित्यकार लोग हैं ।ज्ञान को गिरवी नहीं रखा जा सकता ।
राहुल सांकृत्यायन के प्रसंग को बताते हुए कहते हैं कि ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्होंने खुद नेहरू से लिया था लेकिन ज्ञान तभी उपयोगी है जब हम उसकी ताकत को पहचानेंगे ।
इस क्रम में डॉक्टर संतोष भदौरिया ने डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के कथन को याद करते हुए कहा कि शिक्षा शेरनी का दूध है लेकिन इस ज्ञान को सामाजिक उपयोगिता के संदर्भ में पहचाने जाने की जरूरत है ।
ज्ञान की हमारी यहां एक लंबी परंपरा रही है ज्ञान का समता मूलक समाज की स्थापना करने में उपयोग करना ही मनुष्य का सबसे मुख्य ध्येय होना चाहिए ।
वक्तव्य के अंत में डॉ संतोष भदौरिया कहते हैं कि भारत में ज्ञान पर काम हो लेकिन वह हिंदी भाषा में मौलिक रूप से होना चाहिए ।आज पत्रकारिता या मीडिया में जो भी काम हो रहा है वह एक तरह से अनूदित लेखन के रूप में काम हो रहा है ,हमें मौलिक लेखन में काम करने की जरूरत है और यह मौलिक लेखन विज्ञान साहित्य मेडिकल और अन्य क्षेत्रों में भी होना चाहिए ।
इस कार्यक्रम का संचालन हिंदी विभाग के जी गणेशन मिश्रा ने किया। विभाग के संयोजक डा दीनानाथ ने प्रोफेसर साहेब को स्मृति चिह्न भेंट कर सम्मानित किया। इस कार्यक्रम में वरिष्ठ शिक्षिका डॉ सरोज सिंह ने मुख्य अतिथि का वाचिक स्वागत किया। आभार ज्ञापन डा आभा त्रिपाठी ने किया।इस के अलावा डा राजेंद्र यादव, डा जी गणेशन, डा रामानुज यादव, डा रमाशंकर, डा भारती कोरी, डा पूजा गोंड, डा नीरज सिंह और काफी संख्या में विद्यार्थी मौजूद थें ।